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ऋग्वेद की सूक्तियां
उनतालीस १७६ हे देव । जैसे गाठ को सुलझा (खोल) कर अलग किया जाता है,
वैसे ही मुझे पापो से मुक्त करो। और तुम मुझे जीवन-यात्रा का
सरल मार्ग और उस पर चलने की उचित शक्ति दो। १८०. जमे मित्र मित्र को सच्चा मागं बताता है, वैसे ही तुम यथायं मार्ग के
वताने वाले (उपदेष्टा) वनो। १८१ मनुष्यो के विचार नोर आचार (कम) अनेक प्रकार के हैं ।
१८२. में कारु (क नाकार) हूँ, पिता वैद्य है, और कन्या जो पीसने का काम
करती है। १८३ अपने मे वल का माधान करो।
१८४. जहां के निवासी ज्योति पुंज के समान तेजस्वी हैं, उसी लोक मे
हे सोम | मुझे भी अमृतत्व प्रदान करो, अर्थात् स्थायी निवास दो ।
१८५ सोम का कथन है कि-इन्ही जलो मे विश्व हितकर अग्नि का निवास
है, और मीपधियां भी इन्ही मे आश्रित हैं।
१८६. हम अपने से पूर्व उत्पन्न हुए कर्तव्यपथ के निर्माता आदिकालीन
ऋषियो को नमस्कार करते हैं । १८७ मेरा घर से बाहर जाना मधुमय (प्रीतियुक्त) हो, और मेरा वापिस
आना भी वैसा ही मधुमय हो, अर्थात् मैं जब भी, जहां भी जाऊँ,
सर्वत्र प्रीति एवं आनन्द प्राप्त करू। १८८. हे देव । हमारे मन को शुभसवल्प वाला बनाओ, हमारे अन्तरात्मा को
शुभ कर्म करने वाला बनाओ, और हमारी बुद्धि को शुभ विचार करने वाली बनायो।
४ गमय । ५. अन्तरात्मानं शुभकारिण कुरु । ६ प्रज्ञान शुभाध्यवसायिन कुरु ।