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ऋग्वेद की सूक्तिया
तेतालीस
१९७. जुधा तैलने वाले पुरुष की सास उसे कोमती है और उसकी पत्नी भी उसे त्याग देती है | मागने पर जुआरी को फोई कुछ भी नही देता । जैसे वूढे घोडे का कोई मूल्य नही देना चाहता, वैसे ही जुआरी को भी कोई आदर नही देता ।
१६८ हारे हुए जुमारी की पत्नी को जीते हुए नुमारी केश पकड़ कर खीचते हैं, उसके धन पर दूसरे बलवान जुआरियो को गृध्र दृष्टि रहती है । माता पिता और भाई कहते हैं कि- 'हम इसको नही जानते, इसे बांधकर ले जामो ।'
१६६. हे जुआरी ! जुआ खेलना बन्द कर, खेती कर उसमे कम भी लाभ हो, फिर भी उसे बहुत समझ कर प्रसन्न रह । खेती से ही तो तुझे गोए मिली है, पत्नी मिली है, ऐसा हमे भगवान सूर्य ने कहा है ।
२००. सत्य के ग्राधार पर ही आकाश टिका है, समग्र संसार भर प्राणीगण सत्य के ही आश्रित हैं । सत्य से ही दिन प्रकाशित होते है, सूर्य उदय होता है और जल भी निरतर प्रवाहित रहता है । यह सत्य की वाणी सब प्रकार से मेरी रक्षा करे ।
२०१ मनुष्य और पशु सब को सुख अर्पण करो ।
२०२. प्रत्येक मनुष्य में इन्द्र ( ऐश्वर्य शक्ति) का निवास है ।
२०३. मैं इन्द्र ( आत्मा ) हूँ । मेरे ऐश्वयं का कोई पराभव नही कर सकता । मैं मृत्यु के समक्ष कभी अवस्थित नही होता, अर्थात् मृत्यु की पकड मे नही आता ।