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ऋग्वेद की सूक्तिया
उनतीस १२६ द्रोही व्यक्ति लोगो को झूठी प्रशसा ही पाते है, सच्ची नही ।
१२७. हमारे लिए सभी गन्तव्य स्थान सुगम एव सुपथ हो ।
१२८. हे देव | समाम (सघर्पकाल) मे भी हमारी बुद्धि को व्यवस्थित रखिए।
१२६. छोटे अनुयायी के पापाचार मे नेता के पद पर रहने वाला वठा
व्यक्ति कारण होता है। १३०. स्वप्न भी पाप का कारण होता है, अर्थात् स्वप्न मे किए जाने वाले
दुष्कर्म से भी पाप लगता है। १३१. हमारे योग (लाभ) मे उपद्रव न हो, हमारे क्षेम (प्राप्त लाभ का रक्षण)
मे उपद्रव न हो, अर्थात् हमारे योग, क्षेम वाधारहित मगलमय हो । १३२. परम तत्त्व के स्तोता जन ही ध्र व-अर्थात निश्चल होते हैं ।
१३३. हे इन्द्र | मुट्ठी मे ग्रहण किए हुए जल के समान असत्यभाषी दुष्ट
जन भी असत् हो जाता है, अर्थात् विशीणं एव नष्ट हो जाता है।
१३४. विद्वान् के लिए यह जानना सहज है कि सत्य और असत्य वचन
परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हैं। उनमे जो सत्य एव सरलतम है, सोम उसी की रक्षा करते हैं और असत्य को नष्ट कर देते हैं ।
१३५. इन्द्र हिंसको के ही हिंसक हैं, अथात् अकारण किसी को दण्डित नहीं
करते।
प्रापण योगः, प्राप्तस्य रक्षण क्षेम । ५ स्तोतार। ६. विदुषे । ७. मिथ स्पर्धते । ८ ऋजुतम अकुटिलम् । ६.हिंसकानाम् । १०. पराशातयिता हिंसिता।