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एक मी तालीम
सूक्ति कण ४१ दुःखो का मूल उपाधि है ।
४२. जो मूर्ख है वही उपाधि करता है ।
४३. दूसरा कोई किसी को मुक्त नही कर सकता।
__४४. जिसमे न कोई काम है और न कोई तृष्णा है, और जो कथकथा
(विचिकित्सा) मे पार हो गया है, उसके लिए दूसरा और कोई मोक्ष
नही है, अर्थात् वह मुक्त है। ४५. रागादि की आमक्ति और तृष्णा मे रहित स्थिति मे बढकर और कोई
शरणदाता द्वीप नही है। ४६. निर्वाण अमृत है।
४७. ससर्ग से स्नेह (राग) होता है, और स्नेह से दुख होता है ।
४८. एक धर्म (वात) छोडना चाहिए-अहकार ।
४६. दो धर्म (वात) छोड देने चाहिए -अविद्या और भवतृष्णा ।
५०. एक समाधि है-चित्त की एकाग्रता ।
५१. श्रद्धा का बल धर्म है।
प्रज्ञा का बल धर्म है।
५२. अतीत की ओर दौडने वाला विक्षिप्त चित्त, समाधि का शत्रु है ।
भविष्य की आकाक्षा से प्रकपित चित्त, समाधि का शत्रु है।