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ऋग्वेद की सूक्तियां
सत्रह ६० देवता (ज्ञानी) यज्ञ से ही यज्ञ करते हैं, अर्थात् कर्तव्य से ही कर्तव्य की
पूर्ति करते हैं। ६१. जल एक ही रूप है, यह कभी (ग्रीष्म काल मे) ऊपर जाता है, तो कभी
(वर्षा काल मे) नीचे आता है । ६२. मैं भले ही अकेला हूं, परन्तु मेरा ही बल सर्वत्र व्याप्त है। मैं मन से
जो भी चाहूँ, वही कर सकता हूँ।
६३. जिन मनुष्यो का चित्त चचल है, वे अच्छी तरह चिन्तन (अघीत) किए
हुए को भी भूल जाते हैं। ६४ हे प्रभो । हमे ऊंचा उठाओ, ताकि हम पूर्णायु तक जीवित (सुरक्षित)
रह सके। ६५. जरा-शरीर के सौन्दयं को नष्ट कर डालती है ।
६६. हम स्त्री-पुरुष दोनो परस्पर सम्यक् सहयोग करते हुए गृहस्थ-धर्म का
पालन करें। ६७ साधारण मानव विभिन्न कामनाओ से घिरा रहता है ।
६८ ऋत (सत्य) से ऋत का होना नियत है ।
६६. जैसे हितोपदेश आदि के द्वारा मित्र मित्र के प्रति और माता पिता पुत्र
के प्रति हितपी होते हैं, वैसे ही तुम सब के हितैषी बनो । ७० मनुष्यो के द्रोही (शत्रु) मनुष्य ही हैं ।
२ कर्त-कुरुत, जीवसे-चिरजीवनाय ।