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ऋग्वेद की सूक्तिया
इक्कीस
८१. तू सर्वत्र फैलकर अर्थात् विराट् होकर माता के समान जन-जन (सव
लोगो) का भरणपोपण करने वाला है । ८२. तुम, आकाश मे प्रकाशमान सूर्य की तरह सदा अक्षीण रहने वाले
महान् क्षत्र (विराट् ऐश्वर्य) को धारण करो। ८३. हे धनिक दोनो हाथो से दान कर ।
८४. हे इन्द्र ! जिसे तुम श्रेष्ठ समझते हो, वह अन्न (भोगोपभोग) हमे
प्रदान करो।
५५. पद-पद पर मेरी (सत्कर्म करने वाले की) स्तुति की जाती है ।
८६ सभी देव मेरे लिए स्वाह्वान (एकवार पुकारते ही आने वाले) हो ।
८७. जो गोदान और वस्त्रदान करने वाले हैं, उन्ही श्रेष्ठ धनिको को धन
प्राप्त हो। ८८ माता-पिता मधुर भापण करने वाले, तथा हाथो से अभीष्ट दान देने
वाले होते हैं। ८६. जो सदा जागरूक रहता है, उसी को ऋचाएं (सभी शास्त्र) चाहती हैं।
६०. जो जागरूक रहता है, उसी को साम (स्तुति प्रशसा एव यश) प्राप्त
होते हैं। ६१. सभी श्रेष्ठ जन सदैव दुष्टो से मनुष्यो की रक्षा करते हैं ।
६२. ऋत (सत्य या लोकहितकारी कर्म) से समग्र विश्व को प्रकाशित करो।
४. प्राप्नुवन्ति । ५. युगा-सर्वेषु कालेपु । ६. रिष-हिंसकात् सकाशात् ।