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ऋग्वेद को सूक्तिया
पच्चीस १०५. हे मनुष्यो | यह गाय ही इन्द्र है। मैं श्रद्धा भरे मन से इस इन्द्र की
पूजा करना चाहता हूँ।
१०६. हे गायो ! तुम हमे आप्यायित करो। कृश एव श्रीहीन हम लोगो को
सुन्दर बनायो । हे मंगल ध्वनिवाली गायो । हमारे घरो को मगलमय बनामो । तुम्हारा दुग्ध आदि मधुरस जनसभाओ मे सबको वितरित किया जाता है।
१०७. युवा इन्द्र हमारा स है।
१०८. हम कल्याणकारी अच्छे बलवीर्य के स्वामी हो ।
१०६ आत्मा प्रत्येक रूप (शरीर) के अनुरूप अपना रूप बना लेता है।
११०. इन्द्र (आत्मा) माया के कारण विभिन्न रूपो को धारण करता हुआ
विचरण करता है। १११. सत्य एव प्रिय वाणी ही ऐश्वयं देने वाली है।
११२. न दूर रहने वाला पीड़ित करे और न पास रहने वाला।
११३. जिस प्रकार नौका जल को तैर जाती है, उसी प्रकार हम दुःखो एवं
पापो को तैर जाएँ। ११४. हमारा अन्न अथवा यश मंगलमय हो ।
८. अन्तर.-सन्निकृष्टोपि न हिंस्यात् । ६. श्रवोऽन्न यशश्च ।