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ऋग्वेद को सूनितयाँ २६. हम देवतामो की मित्रता (दोस्तो) प्राप्त करें।
२७. कभी भी दीन-हीन न होने वाली मदिति पृथिवी ही प्रकाशमान स्वर्ग
है, अन्तरिक्ष है, जगत को जननी माता है, पिता है और दुःख से त्राण दिलाने वाला पुत्र भी यही है।
कि वहुना, सभी देव, सभी जातियां, तथा जो उत्पन्न हुआ है और होगा, वह सभी अदिति अति पृथिवीस्वरूप है। २८ मोह से मूच्छित न होने वाले ज्ञानी पुरुप अपने आत्मीय तेज से सदैव
स्वीकृत व्रतो मे दृढ रहते हैं, अर्थात् प्राणपण से अपने नियमो की रक्षा
करते हैं । २६. कर्मशील व्यक्ति के लिए समग्न हवाएं और नदियां मधु वर्षण करती
हैं । औपधियां (अन्न आदि) भी मधुमय हो जाती है ।
३०. हमारी रायि और उपा मधुर हो । भूलोक अथवा पार्थिवमनुष्य
माधयंविशिष्ट हो, और वृष्टि आदि के द्वारा सब का पिता (रक्षक)
कहा जाने वाला आकाश भी मधुयुक्त हो । ३१. हमारे लिए समस्त वनस्पतियां मधुर हो । सूर्य मधुर हो, और सभी
गौएँ भी मधुर हो ।+
३२. हे अग्नि (अग्रणी नेता), तुम्हारा मुख (दृष्टि) सब ओर है, अतः तुम
सब ओर से हमारी रक्षा करने वाले हो, तुम्हारे नेतृत्व मे हमारे सब
पाप विकार नष्ट हो। ३३. भूख और प्यास से पीडित लोगो को यथेष्ट भोजन-पान (अन्न तथा दुग्ध,
जल आदि) अर्पण करो। ३४. ऐश्वयं प्राप्ति का दृढ सकल्प रखने वाले निश्चय ही अपेक्षित ऐश्वयं
पाते हैं।
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८. यजुर्वेद १३।२६ । ६ वयोऽन्न, आसुति-पेय क्षीरादिकम् । १०. इदै अपेक्षितम् ।
+'गो' पशु मात्र का उपलक्षण है, अतः सभी पशु मधुर हो, सुखप्रद हो ।