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तेरह
ऋग्वेद की सूक्तियां ४४. यह दक्षिणा (दान) सदैव सवको तृप्त करती रहती है ।
४५. दानियो के पास अनेक प्रकार का ऐश्वर्य होता है, दानी के लिए ही
आकाश मे सूर्य प्रकारामान है । दानी अपने दान से अमृतत्व पाता है,
नह अति दीर्घ आयु प्राप्त करता है । ४६. दानी कभी दुख नही पाता, उसे कभी पाप नही घेरता ।
४७. अपने व्रत नियमो मे दृढ ज्ञानी साधक कभी जीर्ण (क्षीण एव हीन)
नहीं होते। ४८. दानहीन कृपण को ही सब शोक व्याप्त होते हैं ।
४६. आंखो वाले (ज्ञानी) ही सत्य को देख सकते है, अन्ध (स्थूल दृष्टि
अज्ञानी) नही । ५०. विद्वान लोग जिन्हे अधोमुख कहते हैं, उन्ही को ऊर्ध्वमुख भी कहते हैं,
और जिन्हे ऊध्वंमुख कहते हैं, उन्ही को अघोमुख भी कहते हैं । (भौतिक पक्ष मे सूर्य और चन्द्र की किरणें ऊध्वंमुख और अघोमुख दोनो होती हैं । अध्यात्म पक्ष मे ज्ञानी पुरुष महान् भी होते हैं, और विनम्र भी।)
५१. दो समान योगवाले परस्पर मित्र सुन्दर पक्षी एक वृक्ष (ससार या शरीर)
पर रहते हैं, उनमे से एक पके हुए स्वादिष्ट फल खाता है और दूसरा कुछ नही खाता, केवल देखता है । अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा दो पक्षी है, एक सासारिक भोगो मे लिप्त है और दूसरा निर्लिप्त है, केवल द्रष्टा है।
अतथास्प: स्यूलदृष्टि. न विचेतत् न विवेचयति न जानाति । ८. अर्वागचना अधोमुखा । ६ पराच पुराड मुखाचनान् ऊन् । १० अत्र लौकिकपक्षिद्वय दृष्टान्तेन जीवपरमात्मानौ स्तूयेते । ११. पक्व फलम् । १२. अभिपश्यति ।