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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ
एक सौ सैंतीस
१६. जिस प्रकार जल आदि शोत्रक द्रव्यों से मलिन वस्त्र भी शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक तप साधना द्वारा आत्मा ज्ञानावरणादि अपृविध कर्ममल से मुक्त हो जाता है ।
२०. जिस प्रकार कोई चुपचाप लुकछिपकर विप पी लेता है, तो क्या वह उस विष से नहीं मरेगा ? अवश्य मरेगा । उसी प्रकार जो छिपकर पाप करता है, तो क्या वह उससे दूषित नही होगा ? अवश्य होगा ।
२१. जो व्यक्ति धर्म मे दृढ निष्ठा रखता है वस्तुत वही वलवान है, वही शूर वीर है । जो धर्म मे उत्माहहीन है, वह वीर एव वलवान होते हुए भी न वीर है, न वलवान है ।
२२ जो साधक अध्यात्मभावरूप ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विनय मे श्रेष्ठ हैं, वे ही विश्व के सर्वश्रेष्ठ पुडरीक कमल है ।
२३. कोई कितना ही पापात्मा हो और निश्चय ही उत्कृप्ट नरकस्थिति को प्राप्त करने वाला हो, किन्तु वह भी वीतराग के उपदेश द्वारा उसी भव मे मुक्तिलाभ कर सकता है ।
२४. धर्म भावमंगल है, इसी से आत्मा को सिद्धि प्राप्त होती है ।
२५. हिंसा का प्रतिपक्ष-अहिंसा है ।
२६. एकांत नित्यवाद के अनुसार सुख दुख का सयोग सगत नही बैठता ओर एकात उच्छेदवाद - अनित्यवाद के अनुमार भी सुख दुख की बात उपयुक्त नही होती । अत. नित्यानित्यवाद ही इसका सही समाधान कर सकता है ।
२७. शब्द आदि विषय आत्मा को धर्म ते उत्क्रमण करा देते हैं, दूर हटा देते है, अत. इन्हे 'काम' कहा है ।
२८. मिथ्याप्टि अज्ञानी - चाहे वह साघु के वेप मे हो या गृहस्थ के वेष मे, उसका कथन 'अकथा' कहा जाता है ।
तप मयम आदि गुणों से युक्त मुनि सद्भावमूलक सर्वं जग-जीवो के हित के लिये जो कथन करते हैं, उसे 'कथा' कहा गया है ।