________________
आचार्य भद्रवाहु की सूक्तियां
एक सो उडनचास
७५. जान लेने मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं हो जाती ।
७६. तैरना जानते हुए भी यदि कोई जलप्रवाह मे कूद कर कायचेष्टा न
करे, हाथ पाव हिलाए नहीं, तो वह प्रवाह मे डूब जाता है। धर्म को जानते हुए भी यदि कोई उस पर आचरण न करे तो वह ससारसागर को कैसे तर सकेगा?
जल ज्यो-ज्यो स्वच्छ होता है त्यो त्यो द्रष्टा उसमे प्रतिविम्बित रूपो को स्पष्टतया देखने लगता है। इसी प्रकार अन्तर् मे ज्यो ज्यो तत्त्व रुचि जाग्रत होती है, त्यो त्यो आत्मा तत्त्वज्ञान प्राप्त करता जाता है ।
७८. किसी आलवन के सहारे दुर्गम गर्त आदि मे नीचे उतरता हुआ व्यक्ति
अपने को सुरक्षित रख सकता है। इसी प्रकार ज्ञानादिवर्धक किसी विशिष्ट हेतु का पालवन लेकर अपवाद मार्ग मे उतरता हुआ सरलात्मा
साधक भी अपने को दोप से बचाए रख सकता है। ७६. दूत जिस प्रकार राजा आदि के समक्ष निवेदन करने से पहले भी और
पीछे भी नमस्कार करता है, वैसे है शिष्य को भी गुरुजनो के समक्ष जाते और आते समय नमस्कार करना चाहिए।
८०. अतिस्निग्ध आहार करने से विषयकामना उद्दीप्त हो उठती है।
८१. जो साधक थोडा खाता है, थोडा वोलता है, थोड़ी नीद लेता है और
थोडी ही धर्मोपकरण की सामग्री रखता है. उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
__ ८२. किसी एक विषय पर चित्त को स्थिर-एकाग्र करना ध्यान है।
८३. 'यह गरीर अन्य है, आत्मा अन्य है।' साधक इस तत्त्वबुद्धि के द्वारा
दु.ख एवं क्लेशजनक शरीर की ममता का त्याग करे ।