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विसुद्धिमग्ग की सूक्तियां
एक मो सत्ताईस
४०. यदि इस शरीर के अन्दर का भाग बाहर मे हो जाए तो अवश्य ही डडा लेकर कौवो और कुत्तो को रोकना पडे ।
४१ जो सब क्लेगो से भार (दूर) हो गया है, जिसने क्लेशरूपी वैरियो को हनन (नप्ट) कर डाला है, जिसने ससारचक्र के आरो को हत ( नष्ट कर दिया है, जो प्रत्यय (पूजा) आदि के अहं (योग्य) है, जां
अ + रह ( छिपे हुए) पाप नही करता है, इसलिए वह बरह (अर्हत ) कहा जाता है ।
४२. जिसका राग भग्न है, द्व ेष भग्न है, मोह भग्न है, किं बहुना, जिसके सभी पापधर्म भग्न होगए हैं, इसलिए वह भगवान् कहा जाता है ।
४३ सारी जवानी बुढापे के आने तक है । सारा जीवन मृत्यु के आने तक है ।
४४. क्षमा से बढ़कर अन्य कुछ नही है ।
४५. क्षमा, तितिक्षा ( सहनशीलता) परम तप है |
४६. वंरी (शत्रु) का अनुस्मरण करने से क्रोध उत्पन्न होता है ।
४७. क्रोधी के प्रति क्रोध नही करने वाला दुर्जय सग्राम को भी जीत लेता है ।
४८. दूसरे को कुपित जानकर भी जो स्मृतिमान् शान्त रहता है, वह अपना और दूसरे का - दोनो का भला करता है ।