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विसुद्धिमग्ग की सूक्तिया
एक सौ तेतीस
६८ तथागत ( प्रवुद्ध जानी) सिंह के समान स्वभाव वाले होते हैं । वे स्वयं दु.ख का निरोध करते हुए तथा दूसरो को दु.खनिरोध का उपदेश देते हुए हेतु मे केन्द्रित रहते हैं, फल मे नही । परंतु अन्य साधारण मताग्रही जन कुत्ते के समान स्वभाव वाले होते है, वे स्वय दुख का निरोध करते हुए तथा दूसरो को दु.खनिरोध का उपदेश देते हुए अत्तकिल मचानुयोग (नाना प्रकार के देहदड रूप वाह्यतप के उपदेश आदि) से फल में ही केन्द्रित रहते हैं, हेतु मे नही ।
६६. विराग से ही मुक्ति मिलती है ।
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जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति हाथ पकडकर ले चलने वाले साथी के अभाव मे कभी मार्ग से जाता है तो कभी कुमार्ग से भी चल पडता है । उसी प्रकार ससार मे परिभ्रमण करता हुआ बाल (अज्ञानी) पथप्रदर्शक सद्गुरु के अभाव मे कभी पुण्य का काम करता है तो कभी पाप का काम भी कर लेता है ।
७१. दुखी सुख की इच्छा करता है, सुखी और अधिक सुख चाहता रहता
है | कितु दुख सुख मे उपेक्षा ( तटस्य ) भाव रखना ही वस्तुत सुख है ।
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७२. जिस प्रकार मनुष्य और नौका--दोनो एक दूसरे के सहारे समुद्र मे गति करते हैं, उसी प्रकार सप्तार मे नाम और रूप दोनो अन्योन्याश्रित हैं ।
३ - सिंह किसी दण्ड आदि वस्तु से चोट खाने पर उस वस्तु का नही, किन्तु मारने वाले का पीछा करता है, जब कि कुत्ता वस्तु की ओर दौडता है, मारने वाले की ओर नही ।