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सूक्ति कण
एक सो उनचालीस १८. पुण्य नहीं करने वालो के लिए न यहाँ (इम लोक मे) सुख है, न वहां
(परलोक मे) । पुण्य करने वालो के लिए यहां वहाँ दोनो जगह सुख है ।
१६. जिस प्रकार व्यक्ति एक घर को छोडकर दूसरे घर में प्रवेश करता है,
उसी प्रकार आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर मे प्रवेश करता
२०. ससार के काम भोग शक्ति (घातक वाण) और शूल (भाला) के समान
२१. निर्वाण के मानन्द से बढकर कोई अन्य आनन्द नहीं है ।
२२. अधिकतर मनुप्प अतृप्त अवस्था में ही काल के गाल मे पहुँच जाते हैं ।
२३. भय और वध (हिसा) पाप का मूल है ।
२४. अज्ञानियो का मसार लम्बा होता है, उन्हें बार-बार रोना पडता है ।
२५. हे काम | मैंने तेरा मूल देख लिया है, तू सकल्प से पैदा होता है । मैं
तेरा संकल्प ही नही करूंगा, फिर तू कैसे उत्पन्न होगा?
२६. अपने द्वारा किया गया पाप अपने को ही मलिन करता है । अपने द्वारा न
किया गया पाप अपने को विशुद्ध रखता है ।
२७. दो ममत्त्व है-तृष्णा का ममत्त्व और दृष्टि का ममत्त्व ।
२८. जो अपनी भूलो पर पश्चात्ताप करके उन्हे फिर दुबारा नहीं करता है,
वह धीर पुरुप दृष्ट तथा श्रुत किसी भी विषयभोग मे लिप्त नही होता।