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विसुद्धिमा की सूक्तिया
एक सौ इकत्तीस ५६ अन्न, पान, खादनीय और भी व त से सुन्दर भोजन को मनुष्य अभिनन्द
करता हुआ अर्थात् सराहता हुआ खाता है, किन्तु निकालते हुए घृणा करता है। अन्न, पान, खादनीय और भी बहुत सा सुन्दर भोजन एकरात्रि के परिवाम मे (वामी होते) हो सब सड जाता है ।
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६१. राग ही रज (धूल) है, रेणु (धूल) रज नही है । 'रज' यह राग का ही
नाम है। द्वप ही रज है, रेणु रज नहीं है । 'रज' यह कैप का ही नाम है ।
६२ वीरभाव ही वीर्य है । उसका लक्षण है-उत्साहित होना ।
६३ सम्यक् प्रकार (अच्छी तरह) से आरभ किया गया कर्म ही सब
सम्पत्तियो का मूल है । ६४. माधक अपने आप को गौरवान्वित करके कुलवध के समान लज्जा से
पाप को छोड़ देता है। ६५ सदाचारी सत्व के हृदय का अन्धकार सद्धर्म के तेज मे क्षण भर मे ही
विलय को प्राप्त हो जाता है ।
६६ अप्रिय से सयोग होना दुःख है । प्रिय मे वियोग होना दुख है ।
६७ जैसे सुदृढ म्ल (जड) के विल्कुल नष्ट हुए विना कटा हुआ वृक्ष फिर भी
उग आता है, वैसे ही तृष्णा एव अनुशय (मल) के समूल नष्ट हुए बिना यह दुःख भी बार-बार उत्पन्न होता रहता है ।