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विशुद्धिमग्ग को सूक्तियां
एक सौ उनतीस
४६. क्रोध से अन्धे हुए व्यक्ति यदि बुराई की राह पर चल रहे हैं, तो तू भी क्रोध कर के क्यों उन्ही का अनुसरण कर रहा है
?
५०. तू जिन शीलो (सदाचारप्रधान व्रतो ) का पालन कर रहा है, उन्हीं की जड को काटने वाले क्रोध को दुलराता है, तेरे जैसा दूसरा जड कौन है ?
५१. बुद्धिमान् पुरुष को सदैव आशावान् प्रसन्न रहना चाहिए, उदास नही । मैं अपने को ही देखता हूँ कि मैंने जैसा चाहा, वैसा ही हुआ ।
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समय पर अपनी वस्तु दूसरे को देनी चाहिए, और दूसरे की वस्तु स्वय लेनी चाहिए ।
दान
दान अदान्त ( दमन नही किये गए व्यक्ति) का दमन करने वाला है, सर्वार्थ का साधक है, दान और प्रिय वचन से दायक ऊँचे होते हैं, नोर प्रतिग्राहक झुकते हैं ।
५४ मैत्री भावना वाला व्यक्ति वक्ष पर बिखरे हुए मुक्ताहार के समान और शिर पर ग्रंथी हुई माला के समान मनुष्यो का प्रिय एव मनोहारी होता है ।
५५ मंत्री के साथ विहरने वाले का चित्त शीघ्र हो समाधिस्थ होता है ।
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५६ सर्वप्रथम अपने विरोधी शत्रु पर ही करुणा करनी चाहिए ।
५७ दूसरे को दुःख होने पर सज्जनो के हृदय को कँपा देती है, इसलिए करुणा, करुणा कही जाती है ।
दूसरे के दुःख को खरीद लेती है, अथवा नष्ट कर देती है, इसलिए भी करुणा करुणा है ।
अन्न, पान (पेय), खादनीय और भी बहुत सा सुन्दर शरीर मे एक द्वार से प्रवेश करता है और नव जाता है ।
भोजन मनुष्य के
द्वारो से निकल