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विसुद्धिमग्ग की मूक्तिया
एक सौ पच्चीस ३० प्राप्त निमित्त को अप्रमत्त भाव से सुरक्षित रखने वाले की परिहानि
नही होती, किन्तु अरक्षित होने पर प्राप्त निमित्त कैसा ही क्यो न
अच्छा हो, नष्ट हो जाता है । __ ३१. ममाहित (एकाग्र हुआ) चित्त ही पूर्ण स्थिरता को प्राप्त होता है ।
३२ निरन्तर अपने शरीर को पोसने मे ही सलग्न व्यर्थ की बाते बनाने
वाला व्यक्ति सम्पर्क के अयोग्य है । जैसे कीचड वाला पानी स्वच्छ पानी को गन्ला करता है, ऐसे ही वह अयोग्य व्यक्ति भी साधक के स्वच्छ
जीवन को मलिन बनाता है। ३३. बलवान श्रद्धावाला, किन्तु मन्द प्रज्ञावाला व्यक्ति बिना सोचेसमझे
हर कही विश्वास कर लेता है, अवस्तु (अयोग्य वस्तु एव व्यक्ति) मे
भी सहसा प्रसन्न (अनुरक्त) हो जाता है। ३४ बलवान् प्रज्ञावाला, किन्तु मन्द श्रद्धावाला व्यक्ति कपटी हो जाता है ।
वह औपधि मे ही उत्पन्न होने वाले रोग के समान असाध्य (लाइलाज)
होता है। ३५ यथोचित सम्यक् प्रयत्न के बिना मनुष्य थोडी-सी भी उन्नति (प्रगति)
कर ले, यह कथमपि सभव नही है ।
३६. साधना के क्षेत्र मे एकदम वीर्य (क्ति) के अत्यधिक प्रयोग को
रोक कर साधक को देश, काल, एव परिस्थिति के अनुकूल सम प्रवृत्ति
ही करनी चाहिए। ३७. क्षुद्रिका प्रीति शरीर मे केवल हलका-सा लोमहर्पण (रोमाच) ही कर
सकती है। क्षणिका प्रीति क्षण क्षण पर विद्युत्पात (बिजली चमकने) के समान
होती है। ३८. जहां प्रीति है, वहाँ सुख है । जहाँ सुख है, वहाँ नियमत प्रीति नही भी
होती है।
३६. मृत शरीर उठकर कभी पीछा नहीं करता।