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विसुद्धिमग्ग की सूक्तियां
एक सौ तेईस २० जगल मे रहने वाले बन्दर की तरह, वन मे दौडने वाले चचलमृग की
तरह और मूर्ख मनुष्य की तरह, साधक को त्रस्त एवं चचल नेत्रो वाला
नही होना चाहिए। २१ आवश्यक अग को बचाने के लिए धन का त्याग करे, जिन्दगी की रक्षा
के लिए अग का भी त्याग कर दे । और धर्म का अनुसरण करते हुए (आवश्यकता पड़ने पर) धन, अग और जीवन का भी त्याग करदे ।
२२ जिसका शील (सदाचार) भग्न हो गया है उसे ससार मे सुख कहाँ ?
२३ अशीलवान (यसदाचारी भिक्षु) के लिए मीठा भिक्षान भी हलाहल
विष के समान है। २४. शुद्ध शील से सपन्न भिक्षु के हृदय मे अपनी निन्दा आदि का भय नही
रहता जैसे कि सूर्य को अधकार का भय नहीं रहता।
२५ जो प्राप्त हो उसी मे सतुष्ट रहने वाला यथासस्तरिक भिक्षु तृणो के
विछोने पर भी निर्विकल्प भाव से सुखपूर्वक सोता है ।
२६ कुशल (पवित्र) चित्त की एकाग्रता ही समाधि है ।
२७. सुखी का चित्त एकाग्र होता है ।
२८ प्रिय, गौरवशाली, आदरणीय, प्रवक्ता, दूसरो की बात सहने वाला,
गंभीर बातो को बतलाने वाला और अनुचित कामो मे नही लगाने
वाला-कल्याण मित्र है। २६. जैसे राग अहित (बुराई) करना नहीं छोड़ता, ऐसे ही श्रद्धा हित
(भलाई) करना नहीं छोडती।