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विसुद्धिमग्ग की सूक्तियाँ
एक सौ इक्कीस १४. वहुमूल्य मुक्ता और मणियो से विभूपित राजा ऐमा सुशोभित नही
होता है, जैसा कि शील के प्राभूपणो से विभूषित माधक सुशोभित होता
१५. श्रद्धा और वीर्य (शक्ति) का साधन (स्रोत) चारित्र है ।
१६ विनय संवर (मदाचार) के लिए है, सवर पछतावा न करने के लिए है,
पछतावा न करना पमोद के लिए है ।
१७ मैं नहीं जानता कि स्त्री या पुरुप इधर से गया है । हाँ, इस महामार्ग मे
एक हड्डियो का समूह अवश्य जा रहा है ।
१८. जैसे टिटहरी अपने अण्डे की, चमरी अपनी पूछ की, माता अपने
इकलौते प्रिय पुत्र की, काना अपनी अकेली आँतो की सावधानी के साथ रक्षा करता है, वैसे ही अपने शील की अविच्छिन्न रूप से रक्षा करते हुए उसके प्रति सदा गौरव की भावना रखनी चाहिए ।
१६ रूप, शब्द, रस, गन्य और स्पर्शो से इन्द्रियो की रक्षा करो । इन द्वारो
के खुले और अरक्षित होने पर साधक दस्युओ द्वारा लुटे हुए गाँव की तरह नष्ट हो जाता है।
२ श्री लका के अनुराधपुर मे स्थविर महातिष्य भिक्षाटन के लिए घूम रहे
थे । उसी रास्ते एक कुलवधू अपने पति से झगडा करके सजीधजी अपने मायके जा रही थी। स्थविर को देख कर वह कामासक्त तरुणी खूब जोरो से हंसी । स्थविर ने उसके दात की हड्डियो को देखा, और उन पर विचार करते-करते ही वे महत्व स्थिति को प्राप्त हो गए। पीछे से उसका पति पत्नी की खोज करता हुआ आया और स्थविर मे पूछा--इधर से कोई स्त्री नित ली ? महातिष्य स्थविर ने तब उपयुक्त गाथा कही ।