________________
विसुद्धिमग्ग को सूक्तियां
एक सौ उन्नीस ५ वीर्य (शक्ति) ही क्लेशो को तपाने एव झुलसाने के कारण आताप कहा
जाता है।
६. जो समार मे भय देखता है-वह भिक्षु है ।
७. शील धर्म का आरभ है, आदि है ।
८ जैसे ठोस चट्टानो वाला पहाड वायु से प्रकम्पित नही होता है, वैसे ही
पडित निन्दा और प्रशसा से विचलित नही होते ।
६ शील से दुराचार के संक्लेश (बुराई) का विशोधन होता है ।
समाधि से तृष्णा के सक्लेश का विशोधन होता है। प्रज्ञा से दृष्टि के सक्लेश का विगोधन होता है ।
१० शिरार्थ' (शिर के समान उत्तम होना) शील का अर्थ है । शीतलार्थ
(शीतल-शात होना) शील का अर्थ है ।
११. लज्जा और सकोच होने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है ।
लज्जा और मकोच के न होने पर शील न उत्पन्न होता है, और न
ठहरता है। १२. शील की गन्ध के समान दूसरी गध कहाँ होगी ? जो पवन की अनुकूल
और प्रतिकूल दिशाओ मे एक समान बहती है।
१३. स्वर्गारोहण के लिए शील के समान दूसरा सोपान (सीढी) कहां है ?
निर्वाणरूपी नगर मे प्रवेश करने के लिए भी शील के समान दूसरा द्वार कहां है ?
१-शिर के कट जाने पर मनुष्य की मृत्यु हो जाती है--वैसे ही शील के
टूट जाने पर मनुष्य का गुणरूप शरीर नष्ट हो जाता है। इसलिए शील शिराथं है।