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थेरगाथा को सूक्तिया
एक सी एक ८. मूखं सत्य का एक ही पहलू देखता है, और पडित सत्य के सौ पहलुओ
को देखता है। ६. साधक की समाज मे जो वदना और पूजा होती है, ज्ञानियो ने उसे पंक
(कीचड) कहा है । सत्काररूपी सूक्ष्म शल्य को साधारण व्यक्तियो द्वारा
निकाल पाना मुश्किल है। १०. पापात्मा पहले अपना नाश करता है, बाद मे दूसरो का ।
११. बाहर के वर्ण (दिखावे) से कोई ब्राह्मण (श्रीष्ठ) नहीं होता, अन्तर के
वर्ण (शुद्धि) से ही ब्राह्मण होता है। १२. जिज्ञासा से ज्ञान (श्रुत) बढता है, ज्ञान से प्रज्ञा बढती है, प्रज्ञा से सद्
अर्थ का सम्यग् बोध होता है, जाना हुआ सद् अर्थ सुखकारी होता है ।
१३. मनुष्यो की आयु वैसे ही क्षीण हो जाती है, जैसे छोटी नदियो का जल ।
१४. पराजित होकर जीने की अपेक्षा, युद्ध मे प्राप्त वीर मृत्यु ही अधिक श्रेष्ठ
१५. जो पहले करने योग्य कामो को पीछे करना चाहता है, वह सुख से वचित
हो जाता है, और बाद मे पछताता रहता है ।
१६ जो कर सके वही कहना चाहिए, जो न कर सके वह नही कहना
चाहिए । जो कहता है पर करता नही है , उसकी विद्वान जन निन्दा करते हैं।
अकेला साधक ब्रह्मा के समान है, दो देवता के समान है, तीन गांव के समान है, इससे अधिक तो केवल कोलाहल -भीड है।
१८ लोग प्रसन्न होते है या अप्रसन्न, क्या भिक्षु इसके लिए ही जीता है ?