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थेरगाथा की सूक्तियां
एक सौ तीन
१६. धर्मात्मा व्यक्ति दुर्गति मे नही जाता ।
२० जिसका गौरव साथियो को प्राप्त नहीं होता, वह सद्धर्म (कर्तव्य) से
वैसे ही पतित हो जाता है, जैसे कि थोडे पानी मे मछलिया ।
२१. प्रमाद से ही वासना की धूल इकट्ठी होती है ।
२२. थोडा या ज्यादा कुछ न कुछ सत्कर्म करके दिन को सफल बनाओ।
२३. दूसरे के कहने से न कोई चोर होता है और न कोई साधु ।
२४. धनहीन होने पर भी बुद्धिमान यथार्थत जीता है और धनवान होने पर
भी अज्ञानी यथार्थत. नहीं जीता है ।
२५ मनुष्य कान से सब कुछ सुनता है, आँख से सब कुछ देखता है, किंतु धीर
पुरुप देखो और सुनी सभी बातो को हर कही कहता न फिरे ।
२६. साधक चक्षुष्मान होने पर भी अन्धे की भाति रहे, श्रोग्रवान होने पर भी
बधिर की भाति आचरण करे । २७ प्रज्ञावान मनुष्य दु ख मे भी सुख का अनुभव करता है ।
२८ जो सुस्वादु रसो मे आसक्त है उसका चित्त ध्यान मे नही रमता ।
२६. शीलवान अपने सयम से अनेक नये मित्रो को प्राप्त कर लेता है, और
दु शील पापाचार के कारण पुराने मित्रो से भी वचित हो जाता है ।
३०. शील अनुपम बल है, शील सर्वोत्तम शस्त्र है, शील श्रेष्ठ आभूपण है
और रक्षा करने वाला अद्भुत कवच है।