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थेरगाथा की सूक्तियां
एक सौ पाच
३१. अधर्म से होने वाले लाभ की अपेक्षा धर्म से होने वाला अलाभ श्रेयस्कर
३२. अल्पवुद्धि मूों के द्वारा प्राप्त यश की अपेक्षा विद्वानो द्वारा किया गया
अपयश भी श्रेष्ठ है। ३३. मूों के द्वारा की जाने वाली प्रशंसा की अपेक्षा विद्वानो के द्वारा की
जाने वाली निंदा भी श्रेष्ठ है । ३४. अधर्म मे जीने की अपेक्षा धर्म से मरना ही श्रेष्ठ है ।
३५. जो ससार मे अनासक्त होकर विचरण करते हैं, उनके लिए न कोई प्रिय
है न कोई अप्रिय । ३६ जिस प्रकार हवा से उठी हुई धूल मेघवृष्टि से शात हो जाती है, उसी
प्रकार प्रज्ञा से स्वरूप का दर्शन होने पर मन के विकार शात हो जाते है ।
३७. आसक्त मनुष्य आसक्ति के कारण नाना प्रकार के दुख पाता है ।
३८ चुगलखोर, क्रोधी, मत्सरी (डाह रखने वाला) और कजूस-इनको
सगति नही करनी चाहिए, क्योकि नीच पुरुषो की सगति करना पाप है।
३९. जो बहुश्रुत (विद्वान) होकर, अपने विशिष्ट श्रुतज्ञान के कारण अल्पश्रुत
की अवज्ञा करता है, वह मुझे अधे प्रदीपधर (अधा मसालची) की तरह
प्रतीत होता है। ४०. सत्पुरुषो ने अल्पेच्छता (कम इच्छा) की प्रशंसा की है।
४१. वही वात बोलनी चाहिए जिससे न स्वय को कष्ट हो और न दूसरो को __ हो । वस्तुत सुभापित वाणी ही श्रेष्ठ वाणी है ।