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भाष्यसाहित्य की सूक्तिया
दो सौ एक ११३ उत्सर्ग मार्ग मे समर्थ मुनि को जिन बातो का निषेध किया गया है,
विशिष्ट कारण होने पर अपवाद मार्ग मे वे सव कर्तव्यरूप से विहित
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जिनेश्वरदेव ने न किसी कार्य को एकात अनुज्ञा दी है और न एकात निषेध ही किया है। उनकी प्राज्ञा यही है कि साधक जो भी करे वह सच्चाई-प्रामाणिकता के साथ करे।
११५ ज्ञान आदि की साधना देश काल के अनुसार उत्सर्ग एव अपवाद मर्ग
के द्वारा ही सत्य (सफल) होती है । ११६ जिस किसी भी अनुष्ठान से रागादि दोपो का निरोध होता हो तथा
पूर्वसचित कर्म क्षीण होते हो, वह सव अनुष्ठान मोक्ष का साधक है । जैसे कि रोग को शमन करने वाला प्रत्येक अनुष्ठान चिकित्सा के रूप
मे आरोग्यप्रद है। ११७. सूत्र का अर्थ अर्थात् शास्त्र का मूलभाव बहुत ही सूक्ष्म होता है, वह
आचार्य के द्वारा प्रतिवोधित हुए विना नही जाना जाता।
११८. विना विशिष्ट प्रयोजन के अपवाद दोपरूप है, किंतु विशिष्ट प्रयोजन
की सिद्धि के लिए वही निर्दोष है । ११६. जो जिसके योग्य हो, उसे वही देना चाहिए।
१२०. मनुप्यो । सदा जागते रहो, जागने वाले की बुद्धि सदा वर्धमान रहती
है । जो सोता है वह सुखी नही होता, जाग्रत रहने वाला ही सदा सुखी रहता है।
१२१. सोते हुए का श्रुतज्ञान सुप्त रहता है, प्रमत्त रहने वाले का ज्ञान
शकित एव स्खलित हो जाता है । जो अप्रमत्त भाव से जाग्रत रहता है, उसका ज्ञान सदा स्थिर एव परिचित रहता है।