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सूक्ति कण
दो सौ पेंतीस
३६. वीज जब जल जाता है तो उससे नवीन अंकुर प्रस्फुटित नही हो सकता।
ऐसे ही कम वीज के जल जाने पर उससे जन्ममरणरूप अंकुर प्रस्फुटित नहीं हो सकता। जो अपने किए हुए दुष्कर्म को दूसरे निर्दोष व्यक्ति पर डाल कर उसे लालित करता है कि यह “पाप तूने किया है", वह महामोह कर्म का वंध करता है।
४०.
४१. जो सही स्थिति को जानता हुमा भी सभा के बीच मे अस्पप्ट एव मिश्र
भापा (कुछ सच कुछ झूठ) का प्रयोग करता है, तथा कलह-द्वप से युक्त है, वह महामोह रूप पाप कर्म का वध करता है ।
४२. जिसके आश्रय, परिचय तथा सहयोग से जीवनयात्रा चलती हो उसी
की सपत्ति का अपहरण करने वाला दुष्ट जन महामोह कर्म का वध
करता है। ४३. दु खसागर मे डूवे हुए दुखी मनुष्यो का जो द्वीप के समान सहारा होता
है, जो बहुजन समाज का नेता है, ऐसे परोपकारी व्यक्ति की हत्या करने
वाला महामोह कर्म का बंध करता है। ४४. ज्ञानी नवीन कर्मों का वन्ध नहीं करता।
४५. हित, मित, मृदु और विचार पूर्वक बोलना वाणी का विनय है ।
४६. जिस प्रकार तृण, काष्ट से अग्नि,तथा हजारो नदियो से समुद्र सप्त नही
होता है, उसी प्रकार रागासक्त आत्मा काम-भोगो से तृप्त नही हो पाता।
४७. मैंने सद्गति का मार्ग (धर्म) अपना लिया है, अब मैं मृत्यु से नही
उरता। ४८. धीर पुरुष को भी एक दिन अवश्य मरना है, और कायर को भी, जव
दोनो को ही मरना है तो अच्छा है कि धीरता (शान्त भाव) से ही मरा जाय।