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दोघनिकाय को सूक्तियां
ग्यारह
३५. सद्गृहस्य प्राप्त धन के एक भाग का स्वयं उपयोग करे, दो भागो को
व्यापार आदि कार्य क्षेत्र मे लगाए और चौथे भाग को आपत्तिकाल मे काम आने के लिए सुरक्षित रख छोडे ।
३६. माता-पिता पूर्व दिशा है, आचार्य (शिक्षक) दक्षिण दिशा है, स्त्री-पुत्र
पश्चिम दिशा है, मित्र-अमात्य उत्तर दिशा हैदास और कर्मकर-नौकर अघोदिशा (नीचे की दिशा) है, श्रमण-ब्राह्मण ऊर्ध्व-दिशा-ऊपर की दिशा है। गृहस्य को अपने कुल मे इन छहो दिशाओ को अच्छी तरह नमस्कार करना चाहिए, अर्थात् इनकी यथा
योग्य सेवा करनी चाहिए।' ३७. पण्डित, सदाचारपरायण, स्नेही, प्रतिभावान, एकान्तसेवी-आत्मसयमी,
विनम्र पुरुष ही यश को पाता है ।
३८. उद्योगी, निरालस, आपत्ति मे न डिगनेवाला, निरन्तर काम करनेवाला,
मेधावी पुरुष यश को पाता है ।
३६ साधक के लिए जैसा दिन वैसी रात, जैसी रात वैसा दिन ।
१-राजगृहनिवासी श्रेष्ठी पुत्र शृगाल, पिता के अन्तिम कथनानुसार
छहो दिशाओ को नमस्कार करता था, किन्तु वह 'छह दिशा' के वास्तविक मर्म को नहीं जान पा रहा था। तथागत बुद्ध ने 'छह दिशा' की यह वास्तविक व्याख्या उसे बताई।