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संयुत्तनिकाय को सूक्तिया
तेतीस ५५. चित्त के वशीभूत हो जाने परे ऋद्धिया स्वय ही प्राप्त हो जाती हैं ।
५६. जिस प्रकार केले का फल केले को, नाम का फल वास को और नरकट
का फल नरकट को, खच्चरी का अपना ही गर्भ खच्चरी को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार सत्कार सम्मान कापुरुप (क्षुद्र व्यक्ति) को नष्ट कर देता है।
५७. आखिर विजय उसीकी होती है, जो चुपचाप सहन करना जानता है ।
५८. जाति मत पूछो, कमं पूछो । लकडी से भी आग पैदा हो जाती है ।
५६. वह सभा सभा नही, जहां सत नही, और वे सत सत नही, जो धर्म की
बात नहीं कहते । राग, द्वेष और मोह को छोडकर धर्म का उपदेश करने वाले ही सत होते हैं।
६०. धर्म कहना चाहिए, अधर्म नही ।
प्रिय कहना चाहिए, अप्रिय नहीं । सत्य कहना चाहिए, असत्य नही ।
६१. मुखं अधिकाधिक भूलो की ओर बढते ही जाते हैं, यदि उन्हें कोई रोकने
वाला नही होता है तो। ६२. जो स्वय बलवान् होकर भी दुर्वल की वातें सहता है, उसी को सर्वश्रेष्ठ
क्षमा कहते हैं।
६३. वह वली निवल कहा जाता है, जिसका बल मूरों का वल है ।
६४. जैसा वीज बोता है, वैसा ही फल पाता है।