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अगुत्तरनिकाय की सूक्तिया
१४. दिया हुआ ही सुरक्षित रहता है ।
तेतालीस
१५. वत्स ! दान देते हुए दूसरे को जो रोकता है, वह तीन का अन्तराय करता है, तीन का परिपन्थी - विरोधी धनु होता है ।
कोन ते तीन का ?
दाता को पुण्य का अन्तराय करता है, गृहीता को लाभ का अन्तराय करता है, और सबसे पहले अपनी आत्मा को क्षत एव उपह्न करता है ।
१६. धीर पुरुष ही अरति को सहन कर सकते है ।
१७ गमन के द्वारा कभी भी लोक का ग्रन्त नहीं मिलता है, और जब तक लोक का अन्त नही मिलता है, तब तक दुख से छुटकारा नहीं होता । [ तृष्णा का अन्त ही लोक का अन्त है । ]
१८. यदि पति और पत्नी दोनो ही दुराचारी, कृपण एव कटुभापी हैं, तो यह एक प्रकार से दो शवो (मुर्दों) का समागम है ।
१६. नेता के कुटिल चलने पर सब के सव अनुयायी भी कुटिल ही चलने लगते हैं |
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राजा यदि अधार्मिक होता है तो सारा का सारा राष्ट्र दुखित हो जाता है । और यदि राजा धार्मिक होता है, तो सारा का सारा राष्ट्र सुखी हो नाता है ।
२१. एक व्यक्ति स्वय दुःशील है, पापी है, और उसके सगी साथी भी दुशोल एव पापी हैं, तो भिक्षुओ, वह व्यक्ति असुर है और असुरपरिवार वाला है |
२२. एक व्यक्ति स्वय सदाचारी है, धर्मात्मा है, और उसके सगी-साथी भी सदाचारी एव धर्मात्मा है, तो वह व्यक्ति देव है और देवपरिवार वाला है ।