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सेंतीस
संयुत्तनिकाय की सूक्तिया ७४. अप्रमत्त साधक रूपो मे राग नहीं करता, रूपो को देखकर स्मृतिमान्
रहता है, विरक्त चित्त से वेदन करता है, उनमे अलग्नअनासक्त रहता है। अतः रूप को देखने और जानने पर भी उसका राग एव बन्धन घटता हो
है, बढता नहीं, क्योकि वह स्मृतिमान् होकर विचरता है । ७५. प्रमोद होने से प्रीति होती है, प्रीति होने से शरीर स्वस्थ रहता है और
शरीर स्वस्थ होने से सुखपूर्वक विहार होता है ।
७६ सुखी मनुष्य का चित्त समाधिलाभ करता है, और समाहित चित्त मे
धर्म प्रादुर्भूत होते हैं।
७७. भिक्षुओ । जो तुम्हारा नही है, उसे छोड़ो। उसको छोड़ने से ही तुम्हारा
हित होगा,, सुख होगा।
[जो रागादि परभाव हैं, वे आत्मा के अपने नही हैं ।] ७८. न तो चक्षु रूपो का बन्धन है और न रूप ही चक्षु के बन्धन हैं।
किन्तु जो वहाँ दोनो के प्रत्यय (निमित्त) से छन्दराग उत्पन्न होता है,
वन्तुत वही वन्धन है। ७६. गृहपति । श्रद्धा से ज्ञान ही बड़ा है।
८०. हे भिक्षु ! राग, द्वाप और मोह का क्षय होना ही अमृत है ।
८१. यौवन मे वार्धक्य (बुढापा) छिपा है, आरोग्य मे रोग छिपा है और
जीवन मे मृत्यु छिपी है।