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सयुत्तनिकाय को सूक्तिया
पच्चीस १३. जो शुद्ध, निप्पाप, निर्दोष व्यक्ति पर दोप लगाता है, उसी अज्ञानी जीव
पर वह सब पाप पलटकर वैसे ही आ जाता है, जैसे कि सामने की हवा में फेंकी गयी सूक्ष्म धूल ।
देवता ने कहाजो व्यक्ति जहाँ जहाँ से मन को हटा लेता है, वहाँ वहाँ से फिर उसको दु ख नही होता । जो सभी जगह से मन को हटा लेता है, वह सभी जगह दु ख से टूट जाता है।
१५ तथागत बुद्ध ने उत्तर दिया
सभी जगह से मन को हटाना आवश्यक नही है, यदि मन अपने नियत्रण मे आ गया है तो । जहाँ जहाँ भी पाप है, बस वहाँ वहाँ से ही मन को हटाना है।
१६. जिनका अभिमान प्रहीण हो गया है, उन्हे कोई गाँठ नही रहती ।
१७. सत्पुरुपो के ही साथ बैठे, सत्पुरुषो के ही साथ मिले-जुले; सत्पुरुषो के
अच्छे धर्मों (कर्तव्यो) को जानने से ही प्रज्ञा (सम्यग् ज्ञान) प्राप्त होती है, अन्यथा नहीं।
१८. मात्सर्य और प्रमाद से दान नहीं देना चाहिए ।
१९. वे मरने पर भी नहीं मरते है, जो एक पथ से चलते हुए सहयात्रियो की
तरह थोड़ी से थोडी चीज को भी आपस मे वॉट कर खाते हैं। यह पारस्परिक सहयोग ही सनातन धर्म है । थोडे मे से भी जो दान दिया जाता है, वह हजारो-लाखो के दान की वरावरी करता है।