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सुत्तपिटक . दीघनिकाय की सूक्तियां
१. शोल से प्रज्ञा (=ज्ञान) प्रक्षालित होती है, प्रज्ञा से शील (आचार) प्रक्षालित होता है।
जहां शील है, वहाँ प्रज्ञा है । जहाँ प्रज्ञा है वहाँ शील है। २. गहन अन्धकार से आच्छन्न रागासक्त मनुष्य सत्य का दर्शन नही कर
सकते। जिस पर देवताओ (दिव्यपुरुपों) की कृपा हो जाती है, वह व्यक्ति सदा
मगल ही देखता है, अर्थात् कल्याण ही प्राप्त करता है । ४. भिक्षुओ ! सदैव अप्रमत्त, स्मृतिमान् (सावधान) और सुशील (सदाचारी)
होकर रहो। ५. जो भी संस्कार (कृत वस्तु) हैं,सब व्ययधर्मा (नाशवान्) हैं । अतः अप्रमाद
के साथ (आलस्य रहित होकर) जीवन के लक्ष्य का सम्पादन करो।' ६. सभी संस्कार (उत्पन्न होने वाली वस्तुएँ) अनित्य हैं, उत्पत्ति और क्षय
स्वभाव वाले है । अस्तु जो उत्पन्न होकर नष्ट हो जाने वाले है, उनका शान्त हो जाना ही सुख है।
१-बुद्ध की अन्तिम वाणी। २-बुद्ध के निर्वाण पर देवेन्द्र शक्र की उक्ति ।