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दीघनिकाय को सूक्तियां
पाच
७ कामनायुक्त मृत्यु दु खरूप होती है, कामनायुक्त मृत्यु निन्दनीय होती है।
८. जिस प्रकार सारथि लगाम पकड़ कर रथ के घोड़ो को अपने वश मे किए
रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी साधक ज्ञान के द्वारा अपनी इन्द्रियो को
वश मे रखते है। ६. प्रिय-अप्रिय होने से ही इा एव मात्सर्य होते है ।
प्रिय-अप्रिय के न होने से ईर्ष्या एवं मात्सर्य नहीं होते।
१०. छन्द (कामना-चाह) के होने से ही प्रिय-अप्रिय होते है । छन्द के न
होने से प्रिय-अप्रिय नहीं होते ।
११. सत्कारपूर्वक दान दो, अपने हाथ से दान दो, मन से दान दो, ठोक
तरह से दोपरहित दान दो।
१२. जब तक अपने आपको नही पहचानता, तब तक सियार अपने को व्याघ्र
समझता है। १३. जो लाभ, सत्कार और प्रशसा होने पर अपने को बड़ा समझने लगता है
और दूसरो को छोटा, हे निग्रोध | यह तपस्वी का उपक्लेश है ।
१४. सच्चा तपस्वी क्रोध और वैर से रहित होता है।
१५. सच्चा तपस्वी ईर्ष्या नही करता, मात्सर्य नही करता।
१६. भिक्षुओ! आत्मदीप ( स्वयं प्रकाश, आप ही अपना प्रकाश ) और
आत्मशरण (स्वावलम्वी) होकर विहार करो, किसी दूसरे के भरोसे मत रहो।