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सूक्ति कण
दो सौ तेंतीस २६. जो मन से सु-मन (निर्मल मन वाला) है, संकल्प से भी कभी पापोन्मुख
नहीं होता, स्वजन तथा परजन मे, मान एवं अपमान मे सदा सम रहता
है, वह 'समण' होता है। ३०. अमणत्व का सार है-उपशम ।
३१. जो कपाय को शान्त करता है, वही आराधक है । जो कपाय को शात
नहीं करता, उसकी आराधना नहीं होती।
३२. श्रमण निन्यो का बल 'आगम' (शास्त्र) ही है ।
३३. रुग्ण साथी की सेवा करता हुआ श्रमण महान् निर्जरा और महान् पर्य
वसान (परिनिर्वाण) करता है ।
३४. चार तरह के पुरुप हैं
कुछ व्यक्ति वेप छोड देते हैं, किंतु धर्म नही छोड़ते । कुछ धर्म छोड़ देते हैं, किंतु वेप नहीं छोडते । कुछ वेष भी छोड देते है और धर्म भी । और कुछ ऐसे होते हैं जो न वेप छोडते हैं, और न धर्म ।
३५. चित्तवृत्ति निर्मल होने पर ही ध्यान की सही स्थिति प्राप्त होती है।
जो बिना किसी विमनस्कता के निर्मल मन से धर्म में स्थित है, वह
निर्वाण को प्राप्त करता है। ३६ निर्मल चित्त वाला साधक संसार मे पुन जन्म नहीं लेता।
३७. जो साधक अल्पाहारी है, इन्द्रियो का विजेता है, सभी प्राणियो के प्रति
रक्षा की भावना रखता है, उसके दर्शन के लिए देव भी आतुर रहते है। ३८. जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो, उसे कितना ही सीचिए, वह हरा भरा
नहीं होता । मोह के क्षीण होने पर कर्म भी फिर हरे भरे नहीं होते।