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सूक्ति कण
दो सौ पैंतालीस
६२. वही सद् गृहस्थ श्रावक कहलाने का अधिकारी है, जो किसी की वहुमूल्य
वस्तु को अल्पमूल्य देकर नही ले, किसी की मूली हुई वस्तु को ग्रहण नहीं
करे, और थोड़ा लाभ (मुनाफा) प्राप्त करके ही सतुष्ट रहे । ६३. वस्तु का अपना स्वभाव ही उसका धर्म है ।
६४. मन के विकल्पो को रोक देने पर आत्मा, परमात्मा बन जाता है ।
६५ मन रूप राजा के मर जाने पर इन्द्रियां रूप सेना तो स्वय हो मर जाती
है। (अत. मन को मारने-वश में करने का प्रयल करना चाहिए। ) ६६. चित्त को (विपयो से) शून्य कर देने पर उसमे आत्मा का प्रकाश झलक
उठता है। ___६७ दुर्जन की सगति करने से सज्जन का भी महत्त्व गिर जाता है, जैसे कि
मूल्यवान माला मुर्दे पर डाल देने से निकम्मी हो जाती है।
६८. अपने तेज का बखान नहीं करते हुए भी सूर्य का तेज स्वतः जगविश्रत
६६. श्रेष्ठ पुरुष अपने गुणो को वाणी से नही, किंतु सच्चरित्र से ही प्रकट
करते हैं।
१००, जो दूसरो की निंदा करके अपने को गुणवान प्रस्थापित करना चाहता
है, वह व्यक्ति दूसरो को कड़वी औषध पिला कर स्वय रोगरहित
होने की इच्छा करता है। १०१. सत्पुरुप दूसरे के दोप देख कर स्वयं मे लज्जा का अनुभव करता है।
(वह कभी उन्हे अपने मुह से नहीं कह पाता)। १०२. सम्यक दर्शन की प्राप्ति तीन लोक के ऐश्वर्य से भी श्रेष्ठ है।
१०३. मन रूपी उन्मत्त हाथी को वश मे करने के लिए ज्ञान अंकुश के समान