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भाष्यसाहित्य की सूक्तिया
दो सौ सात
१४३. द्रव्यानुयोग (तत्वज्ञान) से दर्शन (दृष्टि) शुद्ध होता है, और दर्शन शुद्धि
होने पर चारित्र की प्राप्ति होती है । १४४. आचार रूप सद्गुणो की प्राप्ति के लिए धर्मकथा कही जाती है।
१४५. ससार मे मूख के समान कोई वेदना नही है ।
१४६. ज्ञान एवं क्रिया (माचार) से ही मुक्ति होती है ।
१४७ समग्र शास्त्र निर्जरा के लिये है, अत उसमे अमगल जैसा कुछ नही है।
१४८. जो श्रुत उपयोगशून्य है, वह सब द्रव्य श्रुत है।
१४६ जाग्रत दशा मे भी छद्मस्थ अपने मन के सभी विचारो को नही जान
पाता, क्योकि एक ही दिन मे मन के अध्यवसाय (विकल्प) असख्य रूप
ग्रहण कर लेते हैं। १५०. सभी धर्म मुक्ति के साधन नही होते हैं, किंतु जो योग्य है, वही साधन
होता है।
१५१. जिस प्रकार लोक मे कुत्सित वचन, 'भवचन' एवं कृत्सित शील, अशील'
(शील का अभाव) कहलाता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि का ज्ञान
कुत्सित होने के कारण अज्ञान कहलाता है। १५२ ज्ञान के फल (सदाचार) का अभाव होने से मिथ्या दृष्टि का ज्ञान
अज्ञान है। १५३. विश्व का प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है
और साथ ही नित्य भी रहता है। १५४. उपयोगयुक्त शुद्ध व्यक्ति के ज्ञान मे कुछ स्खलनाएं होने पर भी वह
शुद्ध ही है । उसी प्रकार धर्म क्रियामो मे कुछ स्खलनाएं होने पर भी उस शुद्धोपयोगी की सभी क्रियाएँ कर्मनिर्जरा की हेतु होती हैं ।