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भाष्यसाहित्य को सूक्तिया
एक सौ सत्तानवे ६७. ज्यो-ज्यो क्रोवादि कपाय की वृद्धि होती है, त्यो त्यो चारित्र की हानि
होती है।
१८ देशोनकोटिपूर्व की साधना के द्वारा जो चारित्र अर्जित किया है, वह
अन्तमुहूर्त भर के प्रज्वलित कपाय से नप्ट हो जाता है ।
६६ राग द्वेप से रहित आचार्य शीतगृह (सव ऋतुओ मे एक समान सुख
प्रद) भवन के समान है।
१००. पुजीभूत अधकार के समान मालन चित्तवाला दीर्घससारी जीव जव
देखो तव पाप का ही विचार करता रहता है । १०१ विहार करते हुए, गांव में रहते हुए, भिक्षाचर्या करते हुए यदि सुन
पाए कि कोई साधु साध्वी बीमार है, तो शीघ्र ही वहाँ पहुँचना चाहिए। जो साधु शीघ्र नहीं पहुँचता है, उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
१०२ जिस प्रकार कुसुमित उद्यान को देख कर भौरे उस पर मडराने लग
जाते हैं, उसी प्रकार किसी साथी को दुखी देखकर उसकी सेवा के
लिए अन्य साथियो को सहज भाव से उमड पड़ना चाहिए । १०३. रागात्मा के तप-सयम निम्न कोटि के होते हैं, वीतराग के तप-सयम
उत्कृष्टतम होते हैं।
१०४ यतनाशील साधक का कर्मवध अल्प, अल्पतर होता जाता है, और
निर्जरा तीव्र, तीव्रतर । अत वह शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
१. वड्ढकोरयण-णिम्मिय चक्किणो सीयघर भवति । वासासु णिवाय-पवात, सीयकाले सोम्हं, गिम्हे सीयल · सव्वरिउक्खमं भवति ।
--निशीयचूणि ।