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भाष्यसाहित्य की सूक्तियां
८. पाप कर्म न करना हो वस्तुत परम मगल है ।
एक सो उनआसी
६ राजा के द्वारा ठीक तरह से देख भाल किए विना जैसे कि राज्य ऐश्वर्यहीन हो जाता है, वैसे ही आचार्य के द्वारा ठीक तरह से सभाल किए विना सघ भी श्रीहीन हो जाता है ।
१०. जिस प्रकार हाथी स्नान करके फिर बहुत सी धूल अपने ऊपर डाल लेता है, वैसे ही अज्ञानी साधक साधना करता हुआ भी नया कर्ममल संचय करता जाता है ।
११ स्वाध्याय के समान दूसरा तप न अतीत मे कभी हुआ न वर्तमान मे कही है, और न भविष्य मे कभी होगा ।
१२. शास्त्र का वार-बार अध्ययन कर लेने पर भी यदि उसके अर्थ की साक्षात् स्पष्ट अनुभूति न हुई हो, तो वह अध्ययन वैसा ही अप्रत्यक्ष रहता है, जैसा कि जन्माध के समक्ष चंद्रमा प्रकाशमान होते हुए भी अप्रत्यक्ष ही रहता है |
१३. अग्नि कहाँ नही जलती है ? चन्द्रमा कहाँ नहीं प्रकाश करता है ? ओर श्रेष्ठ लक्षणो (गुणो ) से युक्त सत्पुरुष कहाँ नही प्रतिष्ठा पाते हैं ? अर्थात् सर्वत्र पाते हैं ।
१४ सूखे ईधन मे अग्नि प्रज्वलित होती है, बादलो से रहित स्वच्छ आकाश में चन्द्र प्रकाशित होता है, इसी प्रकार चतुर लोगो मे विद्वान् शोभा(यश) पाते हैं ।
१५ उस आश्विक ( घुड सवार ) का क्या महत्त्व है, जो सीधे-सादे घोडो को कावू मे करता है ? वास्तव मे घुडसवार तो उसे कहा जाता है, जो दुष्ट ( अडियल) घोडो को भी काबू मे किए चलता है ।
१६. जो मायावी है, और सत्पुरुषो की निंदा करता है, वह अपने लिए किल्विषिक भावना (पापयोनि की स्थिति) पैदा करता है ।
१७. अपने द्वारा किसी प्राणी को कष्ट पहुचने पर भी, जिसके मन मे पश्चाताप नही होता, उसे निष्कृप - निर्दय कहा जाता है ।