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आचार्य कुन्दकुन्द की सुक्तिया
एक सौ तिहत्तर '
जिस प्रकार धनुर्धर वाण के दिना लक्ष्यवेध नही कर सकता है, उसी' प्रकार साधक भी बिना ज्ञानके मोक्ष के लक्ष्यको नही प्राप्त कर सकता ।
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७८. गुण और दोष के उत्पन्न होने का कारण भाव ही है ।
भाव ( भावना ) मे शून्य मनुष्य कभी सिद्धि प्राप्त नही कर सकता ।
८०. जिस के आभ्यन्तर मे ग्रन्थि (परिग्रह ) है, उसका वाह्य त्याग व्ययं है ।
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८१. जो आत्मा, आत्मा मे लीन है, वही वस्तुत सम्यग् दृष्टि है ।
८२ सज्जन पुरप, दुर्जनो के निष्ठुर और कठोर वचन रूप चपेटो को भी समभाव पूर्वक सहन करते हैं ।
८३ - परिणाम (भाव) में ही ववन और परिणाम से ही मोक्ष होता है, ऐसा जिनशासन का कथन है ।
९४. जो भाव से श्रमण है, वे व्यानरूप कुठार से भव-वृक्ष को काट डालते है ।
८५ हवा से रहित स्थान मे जैसे दीपक निर्विघ्न जलता रहता है, वैसे ही
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राग की वायु से मुक्त रहकर ( आत्ममदिर मे ) ध्यान का दीपक सदा प्रज्ज्वलित रहता है T
८६ जव तक वुढापा 'आक्रमण नही करता है, रोगरूपी अग्नि देह रूपी झोंपड़ी को जलाती नही है, इन्द्रियो की शक्ति विगलित-क्षीण नही होती है, तब तक तुम आत्म-हित के लिए प्रयत्न कर लो ।
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जीव से रहित शरीर शव (मुर्दा- लाश ) है, इसी प्रकार सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति चलता-फिरता 'शव' है । शव लोक मे अनादरणीय ' ( त्याज्य) होता है, और वह चलशव लोकोत्तर अर्थात् धर्म-साधना के क्षेत्र मे अनादरणीय और त्याज्य रहता है ।
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