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आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तिया
एक सौ सडसठ
४४. अन्य सव प्राणी इन्द्रियो की आख वाले है, किन्तु साधक आगम की
आँख वाला है।
४५ अज्ञानी साधक वाल तप के द्वाग लाखो-करोडो जन्मो मे जितने कर्म
खपाता है, उतने कर्म मन, वचन काया को सयत रखने वाला ज्ञानी साधक एक श्वास मात्र में खपा देता है।
४६ आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता है, यह मात्र व्यवहार दृष्टि
४७. जैसी शुद्ध आत्मा सिद्धो (मुक्त आत्माओ) की है, मूल स्वरूप से वैसी ही
शुद्ध आत्मा ससारस्थ प्राणियो की है। ४८. ध्यान मे लीन हुआ साधक सब दोपो का निवारण कर सकता है।
इसलिए ध्यान ही समग्र अतिचारो (दोपो) का प्रतिक्रमण है ।
४६ "मैं केवल शक्तिस्वरूप हैं"-ज्ञानी ऐसा चिंतन करे ।
५०. मेरा अपना आत्मा ही मेरा अपना एकमात्र आलवन है।
५१. ज्ञान-दर्शन स्वरूप मेरा आत्मा ही शाश्वत तत्त्व है, इससे भिन्न जितने
भी ( राग द्वेप, कर्म, शरीर आदि ) भाव है, वे सव संयोगजन्य बाह्य
भाव है, अत वे मेरे नही है । ५२. सव प्राणियों के प्रति मेरा एक जैसा समभाव है, किसी से मेरा वैर नहीं
५३. कर्मवृक्ष के मूल को काटने वाला आत्मा का अपना ही निजभाव
(समत्त्व) है।