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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तिया
एक सौ उनतालीस
जो संयमी होते हुये भी प्रमत्त है, वह रागद्वप के वशवर्ती होकर जो कथा करता है, उसे 'विकथा' कहा गया है ।
२६. तप-सयमस्प आचार का मूल आधार आत्मा (आत्मा मे श्रद्धा) ही है ।
३०. धर्म, अर्थ, और काम को भले ही अन्य कोई परम्पर विरोधी मानते हो,
किंतु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान मे अवतरित होने के
कारण परस्पर असपत्न=अविरोधी है। ३१. अपनी अपनी भूमिका के योग्य विहित अनुष्ठान स्प धर्म, स्वच्छ आशय
से प्रयुक्त अर्थ, विन्त्र भयुक्त (मर्यादानुकूल वैवाहिक नियत्रण से स्वीकृत)
काम-जिन वाणी के अनुसार ये परस्पर विरोधी है । ३२. जो वचन-कला मे अकुगल है, और वचन की मर्यादाओ से अनभिज्ञ है, वह कुछ भी न बोले, तव भी 'वचनगुप्त' नहीं हो सकता ।
जो वचन-कला मे कुगल है और वचन वी मर्यादा का जानकार है, वह दिनभर भाषण करता हुआ भी 'वचनगुप्त' कहलाता है ।
३३. शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श मे जिसका चित्त न तो अनुरक्त होता है
और न प करता है, उसी का इन्द्रियनिग्रह प्रशस्त होता है ।
३४. जिस साधक की इन्द्रिया, कुमार्गगामिनी हो गई है, वह दुष्ट घोडो के ।
वश मे पडे सारथि की तरह उत्पथ मे भटक जाता है।