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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
एक सौ इक्कीम ११६ प्रिय हो या अप्रिय, सब को समभाव से सहन करना चाहिए ।
१२०. हर कही, हर किसी वस्तु मे मन को मत लगा वैठिए ।
१२१. इस संसार मे मनुष्यो के विचार (छन्द = रुचियां) भिन्न भिन्न प्रकार
के होते हैं। १२२. जो पूजा-प्रशंसा सुनकर कभी अहकार नहीं करता, और निन्दा सुन
कर स्वयं को हीन (अवनत) नही मानता, वही वस्तुत महपि है ।
१२३. ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, क्षमा और निर्लोभता की दिशा मे निरन्तर
वर्द्धमान बढ़ते रहिए ।
१२४. साधक को स्वय की प्रज्ञा ही समय पर धर्म की समीक्षा कर सकती है।
१२५. विज्ञान (विवेक ज्ञान) से ही धर्म के साधनो का निर्णय होता है ।
१२६. धर्मों के वेप आदि के नाना विकल्प जनसाधारण मे प्रत्यय (परिचय
पहिचान) के लिए हैं। १२७. स्वय को अविजित असयत आत्मा ही स्वय का एक शत्रु है ।
१२८. संसार की तृष्णा भयंकर फल देने वाली विष-वेल है।
१२६. कषाय-(क्रोध, मान माया और लोभ) को अग्नि कहा है । उसको
बुझाने के लिए श्रुत (ज्ञान) शील, सदाचार और तप जल है । १३०. यह मन बड़ा ही साहसिक, भयंकर, दुप्ट घोडा है, जो बडी तेजी के
साथ दौड़ता रहता है । मैं धर्मशिक्षारूप लगाम से उस घोड़े को अच्छी तरह वश मे किए रहता हूँ।