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उत्तराध्ययन को सूक्तियां
एक सौ सग्रह ६६. सर्प, गरुड के निकट डरता हुआ बहुत सभल के चलता है ।
६७. देवता, दानव, गधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी ब्रह्मचर्य के साधक
को नमस्कार करते हैं, क्यो कि वह एक बहुत दुप्कर कार्य करता है ।
१८. जो श्रमण खा पीकर खूब सोता है, समय पर धर्माराधना नहीं करता,
वह पापश्रमण' कहलाता है।
६६. जो श्रमण असविभागी है (प्राप्त सामग्री को साथियो मे बांटता नही है,
और परस्पर प्रेमभाव नही रखता है), वह 'पाप श्रमण' कहलाता है। १००. जीवन अनित्य है, क्षणभगुर है, फिर क्यो हिंसा मे आसक्त होते हो?
१०१. जीवन और रूप, विजली की चमक की तरह चंचल हैं ।
१०२. स्त्री, पुत्र, मित्र और वन्युजन सभी जीते जी के साथी हैं, मरने के
वाद कोई किसी के पीछे नही जाता ।
१०३ धीर पुरुष सदा क्रिया (कर्तव्य) मे ही रुचि रखते हैं ।
१०४. संसार मे जन्म का दुख है, जरा, रोग और मृत्यु का दुख है, चारो
ओर दुःख ही दु.ख है। अतएव वहा प्राणी निरतर कष्ट ही पाते
रहते हैं। १०५. सदा हितकारी सत्य वचन बोलना चाहिए ।
१०६ अस्तेयव्रत का साधक विना किसी की अनुमति के, और तो क्या,
दात साफ करने के लिए एक तिनका भी नहीं लेता। १०७. सद्गुणो की साधना का कार्य भुजालो से सागर तैरने जैसा है।