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जैन विद्या के आयाम खण्ड -६
जैन एकता के सूत्रधार : डॉ० सागरमल जैन ।
मोहनलाल खरीवाल यह जानकर अति प्रसन्नता हुई कि डॉ० सागरमल जैन के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है डॉ० सागरमलजी एक ऐसे विद्वान् और लेखक हैं जिनकी लेखनी एवं विचारों की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है । दर्शन और धर्म का तो उन्होंने खूब अध्ययन किया है और उसका लाभ जनता एवं समाज को अपने द्वारा रचित ग्रंथों एवं लेखों से दिया है । मैं उनकी विद्वत्ता के बारे में क्या लिख सकता हूँ। इतना ही समझता हूँ कि निरपेक्ष भाव से उन्होंने लेखन कार्य किया
___ मुझे सबसे ज्यादा उनके उस रूप की प्रशंसा करनी पड़ेगी जिसमें जैन एकता के बारे उनके हृदय में अगाध लगन एवं उत्कंठा है। पिछले दिनों उनका एक लेख पढ़ने का मौका मिला जो जैन एकता के सम्बन्ध में था । इतने सुलझे हुए विचारों के विद्वानों की समाज में आज आवश्यकता है। अगर वह एकता हम सभी में आ जाय और सब मिल करें तो समाज कितना ऊँचा उठ सकता है ।
उनके जैन एकता के उद्गार हृदय से निकलकर शब्दों में प्रकाशित हुए हैं। उनका किसी भी संप्रदाय के प्रति द्वेषभाव नहीं है। यही कारण है कि दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी एवं तेरापंथी भी उनका आदर करते हैं और समय-समय पर सभी संप्रदाय वाले उन्हें निमन्त्रण देकर बुलाते हैं । विचार सुनते हैं और अभिनंदन करते हैं । मुझे तो उनकी एक ही अभिलाषा पूर्ण होने की अत्यंत इच्छा है कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ को वे विश्वविद्यालय में परिवर्तित कर सकें । जिससे हम सभी का सम्मान बढ़ सके । उनका प्रयत्न इसमें जरूर सफल होगा, ऐसी आशा है।
ईश्वर उन्हें चिरायु करे एवं स्वस्थ रखे जिससे समाज को लाभ मिल सके । मैं तो उनके विचारों का प्रशंसक हूँ और उनका स्थान मेरे हृदय में आदरणीय है।
जैन विद्या के तुलनात्मक अध्येता : डॉ० सागरमल जैन
डॉ० रमेशचन्द्र जैन* ___ डॉ० सागरमल जैन को मैं लगभग दो दशक से जानता हूँ । वे जैन दर्शन के गहन अध्येता, चिन्तक और आगम गवेषी विद्वान हैं । हंसमुख और सौम्य व्यक्तित्व के धनी डॉ० सागरमल जैन सहजता, सरलता, वात्सल्य, करुणा, मुदिता के भण्डार हैं । जैन समाज में पार्श्वनाथ विद्याश्रम जैन शोध और खोज के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। उसके निर्देशक पद को संभाले हुए आपकी लेखनी अनवरत चलती रहती है। वे जैन विद्या में व्याख्यान देने अनेक बार विदेशों में भी गए हैं। जैन, बौद्ध और गीता के विषय में उनका महत्त्वपूर्ण शोधग्रन्थ प्रकाशित हुआ है, जो उन्हें दार्शनिक चिन्तक के साथ जैन विद्या के तुलनात्मक अध्येता के रूप में प्रस्तुत करता है । इसके अतिरिक्त डॉ० सागरमल जैन की अन्य कृतियों उनकी तुलनात्क दृष्टि का विकास हुआ है । चूंकि श्वेताम्बर संस्कारों के बीच उनका जन्म हुआ, उसी में वे पले बढ़े हैं और उनके अध्ययन तथा कार्य का केन्द्र श्वेताम्बर संस्था है, अत: उनके लेखों में हम श्वेताम्बर परम्परा का प्रबल पोषण सहज पाते हैं, तथापि इस रूप में दिगम्बर विद्वानों के लिए भी उनकी महत्ता है कि वे लेख-चिन्तन के नए-नए आयाम प्रस्तुत कर दूसरे को भी चिन्तन करने हेतु उबुद्ध करते हैं। उनके लेखों को पढ़कर कोई आलसी नहीं रह पाता। उनके मार्गदर्शन में अनेक शोधछात्रों ने पी-एच०डी० जैसी गरिमामय उपाधि प्राप्त की है, अनेक छात्र/छात्रायें शोध कार्यरत हैं। 'श्रमण' पत्रिका में उनके तथा अन्य जैन विद्या के विद्वानों के महत्त्वपूर्ण शोध आलेख प्रकाशित होते रहते हैं । अपने सम्पादकीय वक्तव्यों में यदा-कदा
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