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(२४) इत्याशाधरविरचिता स्वोपज्ञधर्मामृतसागारटीका भव्यकुमुदचन्द्रिकानाम्नी समाप्ता।
भावार्थ-मैंने (आशाधरने) सागारधामृतकी यह सुन्दर टीका बनाई जिसके आठ अध्याय हैं । जब परमारवंशशिरोमणि देवसेन राजाके पुत्र श्रीमान् जैतुगिदेव अपने खड्गके बलसे मालवाका शासन करते थे, तब नलकच्छपुरके नेमिनाथ चैत्यालयमें यह भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका पौषवदी ७ सं० १२९६ को पूर्ण हुई । यह श्रावकधर्मदीपक ग्रन्थ पंडित आशाधरने बनाया और पोरवाड़वंशरूपी आकाशके चन्द्रमा श्रीमान् समुद्धरश्रेष्ठीके पुत्रने महीचन्द्रकी प्रार्थनासे इसकी पहिली पुस्तक लिखी । उस श्रेष्ठीपूत्रके पुण्यकी बढ़वारी हो। अन्तरंगके अंधकारको नष्ट करनेवाला जिनेन्द्रदेवका शासन जब तक रहे और जबतक चन्द्रसूर्य लोगोंके नेत्रोंको आनन्दित करते रहें, तब तक यह श्रावकधर्मका ज्ञान करानेवाली टीका भव्य जनोंके मागे धर्माचार्योंके द्वारा निरन्तर पढ़ी जावे ।
सोऽहमाशाधरोऽकार्षे टीकामेतां मुनिप्रियाम् । स्वोपज्ञधर्मामृतोक्तयतिधर्मप्रकाशिनीम् ॥ २० ॥ शब्दे चार्थे च यत्किञ्चिदत्रास्ति स्खलितं मम । छद्मस्थभावात्संशोध्य सूरयस्तत्पठन्त्विमाम् । नलकच्छपुरे पौरपौरस्त्यः परमार्हतः। जिनयज्ञगुणौचित्यकृपादानपरायणः ॥ २२ ॥