________________
mann
२०४ ]
तीसरा अध्याय आगे-स्त्रीको स्वयं धर्मनिष्ठ बनानेके लिये उपदेश | देते हैं
व्युत्पादयेत्तरां धर्मे पत्नी प्रेम परं नयन् ।
सा हि मुग्धा विरुद्धा वा धर्माद्भशयते तरां ॥२६॥ __ अर्थ-दर्शनिक श्रावकको अपना समस्त परिवार धर्म में व्युत्पन्न करना चाहिये तथा अपनेमें और धर्ममें दोनों में स्त्रीका उत्कृष्ट प्रेम बढाता हुआ उसे धर्ममें सबसे अधिक व्युत्पन्न करना चाहिये । क्योंकि यदि स्त्री धर्मको नहीं जानती होगी वा धर्मसे विरुद्ध होगी अथवा अपनेसे ( पतिसे ) विरुद्ध होगी तो वह परिवार के लोगोंसे अधिकतर धर्मसे भ्रष्ट कर देगी। भावार्थ-धर्मको नहीं जानते हुये अथवा धर्मसे विमुख ऐसे प. रिवार के लोग मनुष्यको धर्मसे च्युत कर देते हैं और यदि ऐसी ही स्त्री हुई तो वह उन परिवारके लोगोंसे भी अधिक धर्मभ्रष्ट कर देती है । क्योंकि गृहस्थोंके धर्मकार्य भी प्रायः सब स्त्रियों के आधीन हैं । इसलिये अपने धर्मका निर्वाह करनेके लिये स्त्रीको धर्मशिक्षा देना अवश्य कर्तव्य है ॥ २६ ॥ ___ आगे-ऊपर जो लिखा है “ अपनेमें स्त्रीका प्रेम उत्कृष्ट रीतिसे बढाना चाहिये" उसीका समर्थन करते हैं
स्त्रीणां पत्युरुपेक्षैव परं वैरस्य कारणं । तन्नोपेक्षेत जातु स्त्रीं वांच्छन् लोकद्वये हितं ॥ २७॥