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चौथा अध्याय केवल अपनी ही स्त्रीमें अथवा केवल अपनी ही स्त्रीयोंके द्वारा मैथुनरूप रोगी शांतिकर शरीर और मनका स्वास्थ्य संपादन करना चाहिये । भावार्थ-जो ब्रह्मचर्यव्रत धारण नहीं कर सकता उसे स्वदारसंतोषव्रत स्वीकार करना चाहिये ॥ ५१ ॥
आगे-स्वदारसंतोष किसके हो सकता है सो कहते हैंसोऽस्ति स्वदारसंतोषी योऽन्यत्रीप्रकटस्त्रियौ।
न गच्छत्यसो भीत्या नान्यैर्गमयति त्रिधा॥५२॥ __ अर्थ--परिगृहीत अथवा अपरिगृहीत दूसरे की स्त्रीको अन्यस्त्री कहते हैं, जो स्त्री अपने स्वामीके साथ रहती हो उसे परिगृहीत कहते हैं और जो स्वतंत्र हो अथवा जिसका पति परदेश गया हो ऐसी कुलांगना अनाथ स्त्रीको अपरिगृहीता कहते हैं । कन्याकी गिनती भी अन्यस्त्रीमें है, क्योंकि उसका पति होनेवाला है अथवा माता पिता आदिकी परतंत्रतामें रहती है इसलिये वह सनाथ अन्यस्त्री गिनी जाती है।
वेश्याको प्रकटस्त्री कहते हैं । जो पुरुष केवल पापके भयसे मन वचन कायसे, कृत कारितसे अथवा अनुमोदनासे भी अन्यस्त्री और वेश्याओंको सेवन नहीं करता है और न परस्त्रीलंपट पुरुषोंको सेवन करानेकी प्रेरणा करता है वह गृहस्थ स्वदारसंतोषी कहलाता है अर्थात् जो अपनी धर्मपत्नी में ही संतोष रखता हो, मैथुनसंज्ञाके प्रतीकार करनेकी इच्छासे केवल अपनी ही स्त्रीको सेवन करनेरूप स्वदारसंतोष अणुव्रत
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