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सागारधर्मामृत
[३०५ आगे-वक्रोक्तिसे परिग्रहमें दोष दिखलाते हैअविश्वासतमोनक्तं लोभानलघृताहुतिः । आरंभमकरांभोधिरहो श्रेयः परिग्रहः ॥६३॥
अर्थ-यह परिग्रह अविश्वासरुपी अंधकार के होनेमें रात्रि है अर्थात् जैसे रात्रिमें अंधकार और अंधकारसे दुःख होता है उसीप्रकार परिग्रहसे अविश्वास और अविश्वाससे दुःख हुआ करता है । इसीतरह यह परिग्रह लोमरूपी अग्निके प्रज्वलितः करनेकेलिये धीकी आहूति, अर्थात् जैसे घीकी आहूतिसे अग्नि बढती है उसीप्रकार परिग्रहसे लोभ बढता है और अग्नि जैसे संताप बढानेवाली है उसीप्रकार लोभसे भी संताप बढता है । भावार्थ-परिग्रहसे लोभ और लोभसे संताप बढता है । तथा यह परिग्रह खेती व्यापार आदि आरंभरूपी मगर मत्स्य आदिकोंका समुद्र है अर्थात् जैसे समुद्र में मगर मत्स्य आदि उत्पन्न होते हैं उसीप्रकार परिग्रहसे खेती व्यापार आदि होते हैं और मगर मत्स्य जैसे त्रास और मृत्युके कारण हैं उसीतरह खेती व्यापार आदि भी त्रास और मृत्युके कारण हैं। भावार्थ-परिग्रहसे खेती व्यापार और खेती व्यापारसे अनेक तरहके त्रास और मृत्यु आदि दुःख उठाने पड़ते हैं । इसप्रकारका ( सब तरहसे दुःख देनेवाला) भी परिग्रह मनुष्योंका कल्याण करनेवाला और सेवन करने योग्य है यह बडा भारी आश्चर्य है । अभिप्राय यह है कि परिग्रहसे कभी किसीका आत्मकल्याण नहीं हो सकता और न वह सेवन करने ही योग्य है ॥ ६३ ॥