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सागारधर्मामृत
[३११ थोडे नफेसे बेच दिया हो अथवा जिसका संग्रह भी स्वयं न किया हो ऐसे पदार्थको बेचकर किसी दूसरेने अधिक नफा उठाया हो उसे देखकर विषाद करना विस्मय है । योग्य लाभ होने पर भी और अधिक लाभ होनेकी आकांक्षा करना लोभ है । लोभके वशसे शक्तिसे अधिक बोझा लादनेको अतिभारारोपण कहते हैं।
श्री सोमदेवने " कृतप्रमाणो लोभेन धान्याद्यधिक संग्रहः । पंचमाणुव्रतज्यानिं करोति गृहमेधिनां ॥" अर्थात्लोभसे किये हुये परिमाणसे धान्यादिका अधिक संग्रह करना गृहस्थोंके पांचवें अणुव्रतकी हानि करता है।" ऐसा कहा है। स्वामी समंतभद्राचार्य और श्री सोमदेवने जो अतिचार कहे हैं वे ऊपर लिखेहुये अतिचारोंसे भिन्न है तथापि “ परेऽप्यूह्यास्तथात्ययाः " अर्थात् " ऐसे और भी अतिचार कल्पना कर लेना" इसप्रकार ग्रंथकारके कहनेसे सबका संग्रह हो जाता है । भावार्थ-ये सब अतिचार माने जाते हैं ॥ ६४ ॥
आगे-इसप्रकार निर्दोष परिग्रहपरिमाण व्रत पालन करनेवालेको कैसा फल मिलता है सो दृष्टांत देकर बतलाते हैं
यः परिग्रहसंख्यानव्रतं पालयतेऽमलं । जयवजितलोभोऽसौ पूजातिशयमश्नुते ॥ ६५ ।।
अर्थ-जो मनुष्य परिग्रहपरिमाण व्रतको निरतिचार पालन करता है वह लोभको जीतनेवाला निर्लोभी मनुष्य कुरुराजा मेघेश्वर (जयकुमार )के समान उत्तम पूजा अर्थात् आदर सत्कारको प्राप्त होता है। भावार्थ- इंद्रादि देव भी उसकी पूजा करते हैं ॥ ६५ ॥