Book Title: Sagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pandit, Lalaram Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 353
________________ ___ सागारधर्मामृत [ ३०३ इसका कारण यह है कि यह कथन देशसंयमीके लिये है। देशसंयम अनंतानुबंधी तथा अप्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्वके निग्रह करनेसे ही होता है इसलिये देशसंयम प्राप्त होनेके पूर्व ही मिथ्यात्वका विजय हो चुकनेके कारण यहांपर उसका ग्रहण नहीं किया है ॥६०॥ आगे-बहिरंग परिग्रहके त्याग करनेकी विधि कहते हैंअयोग्यासंयमस्यांगं संगं बाह्यमपि त्यजेत् । मूच्छोगत्वादपि त्यक्तुमशक्यं कृशयेच्छनैः ॥६१॥ अर्थ-परिग्रहपरिमाणाणुव्रती श्रावक जिसप्रकार अंतरंग परिग्रहोंका त्याग करता है उसीप्रकार उनके साथ साथ जो घर खेत आदि बाह्य परिग्रह मोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाले श्रावकके करनेके अयोग्य ऐसे अनारंभी त्रस जीवोंकी हिंसा, व्यर्थ स्थावर जीवोंकी हिंसा और परस्त्रीगमन आदि असंयमका कारण है उसका भी उसे त्याग कर देना चाहिये । तथा जिन बाह्य परिग्रहोंका वह त्याग नहीं कर सकता उनको शास्त्रानुसार ज्यों ज्यों समय व्यतीत होता जाय त्यों त्यों धीरे धीरे घटाते जाना चाहिये । क्योंकि परिग्रहरूप संज्ञा इस जीवके साथ अनादिकालसे लगी हुई है वह एक साथ छोडी नहीं जा सकती। कदाचित् एक साथ उसका त्याग कर भी दिया | जाय तो उसकी वासनाके संबंधसे उसके व्रतमें भंग हो जाना | -

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