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चौथा अध्याय संभव है । इसलिये श्रावकको अनुक्रमसे धीरे धीरे बाह्य परिग्रहका त्याग करना चाहिये । यहांपर पहिला अपि शब्द समुच्चय अर्थमें है और सूचित करता है कि अंतरंग परिग्रहके साथ साथ त्यागने योग्य बाह्य परिग्रह का भी त्याग करे ॥६१॥ ___आगे--इसी विषयको स्पष्ट करते हैंदेशसमयात्मजात्याद्यपेक्षयेच्छां नियम्य परिमायात्। वास्तवादिकमामरणात्परिमितमपि शक्तितः पुनः कृशयेत्॥६२।।
अर्थ-श्रावकको देश, काल, आत्मा, जाति और आदि शब्दसे वंश, वय तथा योग्यता इनकी अपेक्षा रखकर अर्थात् जिसमें इन सबका निर्वाह हो सके ऐसी रीतिसे परिग्रहकी तृष्णाको संतोषकी भावनासे निग्रहकर मरणपर्यंततककोलिये घर, खेत, धन, धान्य, दासीदास आदि द्विपद, गाय, घोडा आदि चतुष्पद, शय्या, आसन, रथ बग्घी आदि सवारी और बर्तन वस्त्र आदि कुप्यमांड इन दशप्रकारके बाह्य परिग्रहोंका परिमाण करना चाहिये । तथा निष्परिग्रहकी भावनासे उत्पन्न हुई अपनी शक्तिकी अपेक्षासे अर्थात् तृष्णा घट जानेपर जिनका परिमाण किया जा चुका है ऐसे घर खेत आदि परिग्रह को भी घटाते जाना चाहिये । भावार्थ-जन्मभरकेलिये तो सबका परिमाण करलेना ही चाहिये और फिर उससे भी शक्तिके अनुसार घटाते जाना चाहिये ॥२॥